Tuesday 26 December, 2017

डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक की याद-2 / श्याम बिहारी श्यामल

[डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक हमारे समय के महत्वपूर्ण समालोचक रहे हैं। हिन्दी लघुकथा पर उनकी दृष्टि अन्य आलोचकों की तुलना में कहीं अधिक सधी और सटीक रही है। नवें दशक में उन्होंने कुछ विचारोत्तेजक लेख लघुकथा साहित्य को प्रदान किए थे जो हमेशा ही उपयोगी रहेंगे। दिनांक 7-12-2017 की सुबह लगभग 79 साल 10 माह की उम्र में उनके निधन से हुई क्षति अपूरणीय है। हमारे विशेष अनुरोध पर उनके समग्र व्यक्तित्व को याद करते इस संस्मरण को उपलब्ध कराया है वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार भाई श्याम बिहारी श्यामल ने। इस लेख की पहली किस्त 17 दिसम्बर, 2017 को प्रस्तुत की गयी थी। आज प्रस्तुत है इसकी दूसरी यानी समापन किस्तबलराम अग्रवाल]                 
   दिनांक 17-12-2017 को प्रकाशित पोस्ट से आगे………    
हिन्दी साहित्य के मौजूदा मानचित्र या परिदृश्य से परिचित किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए जिसे सत्तर से नब्बे के दशकों के दौरान या उसके बाद भी पलामू के सांस्कृतिक जीवन-जगत में डा. व्रजकिशोर पाठक की वाग्मिता के ऐश्वर्य और रचनाशीलता के वैभव से अवगत होने का अवसर मिला हो, आज बड़े स्तर पर उनकी कहीं कोई उपस्थिति का न दिखना केवल और केवल दुखद आश्चर्य ही पैदा कर सकता है। एक ऐसा ज्ञाता जिसकी जिह्वा पर ही संस्कृत के वाल्मीकि-कालिदास ही नहीं अंग्रेजी के वडर्सवर्थ-शेक्शपीयर से लेकर हिन्दी के तुलसीदास-भारतेंदु  व प्रेमचंद-प्रसाद, मुक्तिबोध-अज्ञेय तक बसते हों ! 
श्याम बिहारी श्यामल
कॉलेज में जिस शख्स को सुनने के लिए कक्षा में साहित्येत्तर विषयों के भिन्न कक्षायी छात्र से लेकर फिजिक्स-केमेस्ट्री के प्राध्यापक तक पिछले दरवाजों से धड़धड़ाकर भर जाया करते हों और जिसके मुंह से फूटने का अवसर पाते ही शब्द दृश्यांतरित होकर अतिरिक्त अभिव्यक्ति-क्षमता के नए बल से संस्कारित हो जाते हों, ऐसे व्यक्तित्व की हमारे शब्द संसार की परिधि में एकबारगी संपूर्ण अदृश्यता आखिर क्या संकेत कर रही है ? यह स्वयं उनकी कार्य-भूमिका में किसी व्यवहारगत कमी या बेपरवाही का हश्र है अथवा हमारे साहित्य समाज की किन्हीं घनघोर बाड़ेबंदियों का दहला देने वाला सबूत?

(स्व॰) डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक

व्रजकिशोर पाठक ने लघुकथा आंदोलन के दूसरे उत्थान-काल में अस्सी के दशक के दौरान इस नव्यतर विधा की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। नौवें दशक के प्रारंभिक वर्षों में डालटनगंज से प्रकाशित कृष्णानंद कृष्ण संपादित पत्रिका 'पुन:' के बहुचर्चित लघुकथांक में सम्मिलित उनका आलेख 'हिन्दी लघुकथा का शरीर-विज्ञान और उसकी प्रसव-गाथा' न केवल उल्लेखनीय बल्कि इस विधा का ऐसा महत्वपूर्ण आधार-विश्लेषण है जिसे पढ़े बगैर कोई समीक्षक लघुकथा पर आगे बात कर ही नहीं सकता। उनकी समालोचना-शैली हिन्दी में एक ऐसे नए प्रकार का विश्लेषण रूप प्रस्तुत करती है जिसमें समीक्षकीय माप-तौल की शुष्क तराजू-बटखरी खटर-पटर के मुकाबले सृजनात्मक मनन-मंथन का मधुर मथानी-संगीत अधिक मुखर है।
वह भी एक दौर रहा जब पलामू में कोई भी रचनाकार अपनी कोई किताब छपाने को आगे बढ़ता तो सबसे पहले भूमिका लिखाने उन्हीं के पास पहुंचता। बेशक इस निमित्त दो नाम और भी सबके सामने उपलब्ध होते डा. जगदीश्वर प्रसाद और डा. चंद्रेश्वर कर्ण, लेकिन प्राय: रचनाकारों की पहली पसंद व्रजकिशोर पाठक ही होते। इसकी जो वजह अब समझ में आ रही वह है शेष दोनों आचार्यों की प्रचलित छवियां जो नए लोगों को असहज बना देती थीं। दोनों प्रथमत: से लेकर अंतत: तक आचार्य ही गोचर होते रहते। डा. जगदीश्वर प्रसाद सहज तो रहे लेकिन उनके बारे में बौद्धिक जनमानस में एक यह धारणा बहुत गहरे पैठी रही कि वह अत्यधिक बहुपठित और उद्भट विद्वान हैं। लोग उन्हें बोपदेव कहा करते। इस कारण लोग स्वयं ही आत्मसंशय का शिकार हुए रहते कि ऐसा घनघोर आचार्य भला स्थानीय स्तर के किसी नए रचनाकार को क्या तरजीह देगा !
दूसरे डा. चंदेश्वर कर्ण का तो व्यक्तित्व भी सख्त रहा। वह बहुत अधुनातन शब्दावली में लिखते और बोलने में भी एक-एक शब्द बहुत माप-जोखकर खर्च करते। अपने समकक्षीय रचनाकारों के बीच वह कभी-कभी हंसते-ठठाते भी दिख जाते लेकिन कनीय रचनाकारों के बीच उनकी संजीदगी देखते बनती। हां-हूं से शायद ही कभी आगे बढ़ते।
रचना-मूल्यांकन की उनकी मानक कसौटी ऐसी आला दर्जे की रही कि स्थानीय नयों को इससे खासा दहशत महसूस होती। अस्सी के दशक के शुरुआती दिनों में ही पलामू के सुकंठ गीतकार हरिवंश प्रभात की कविताओं की किताब 'बढ़ते चरण' रामेश्वरम के असु प्रेस से छपकर आई थी। जाहिरन यह पलामू के एक नए रचनाकार की रचनाओं का संग्रह था, किसी गिरिजा कुमार माथुर या श्रीकांत वर्मा की किताब नहीं लेकिन डा. कर्ण ने इसकी बहुत कठोर समीक्षा की। उन्होंने 'बढ़ते चरण को रोको' शीर्षक से इसकी 'पलामू दर्पण' में ऐसी खबर ली कि हरिवंश प्रभात ही नहीं, दूसरे स्थानीय रचनाकार तक सहमकर रह गए थे।
दोनों के विपरीत व्रजकिशोर पाठक की आचार्य वाली छवि हमेशा गौण रही। वह हमेशा रचनात्मक आभा से भरे रहते। नए से नए रचनाकार से एकदम उसी के स्तर पर घुल-मिलकर एकाकार हो जाते। कवि आता तो उसके सामने उनका मधुर गीतकार मुखर हो उठता और गद्यकार पहुंचता तो उनका सजग कथाकार। भूमिका लिखाने पहुंचने वाले शायद ही किसी रचनाकार को उन्होंने कभी निराश लौटाया हो। साधारण से साधारण रचनाओं को भी वह खारिज नहीं करते। सौ की जगह पांच फीसद भी कुछ सप्राण तत्व होता तो वह क्षतिग्रस्त पंचान्बे को तो बेशक चिह्नित कर देते लेकिन सकारात्मक पांच की संभावनाओं को धुनकर रूई के फाहे की तरह लहराकर पेश करते।

1 comment:

ve aurten said...

कविता जैसी भाषा में बुना गया संस्करण । पढ़ कर आनंद आ गया।