Tuesday 27 December, 2016

डॉ. सतीश दुबे को श्रद्धांजलिस्वरूप प्रस्तुत डॉ॰ उमेश महादोषी का विशेष आलेख


डॉ. सतीश दुबे का रचनात्मक व्यक्तित्व :  

पिचहत्तर वर्षीय यात्रा का सर्वेक्षण  

   डॉ॰ उमेश महादोषी
[ डॉ॰ सतीश दुबे के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित यह लेख उनके जीवित रहते ही लिखा गया था और उनके अन्तिम क्षणों तक पूरा भी हो गया था। इसलिए इसकी भाषा संस्मरण-जैसी होकर उनके व्यक्तित्व की व्याख्या-जैसी है; और उनके प्रति सम्मान को पूर्ववत् रखने की दृष्टि से इसे जस का तस रखा गया है। इस लेख को लिखने और इसके प्रारूप के बारे में डॉ॰ सतीश दुबे साहब से दो-तीन बार फोन पर चर्चा भी हुई थी; लेकिन दुर्भाग्य, यह उनके हाथों में पहुँच सका।-उमेश महादोषी ] 


डॉ॰ सतीश दुबे (जन्म : 12-11-1940 निधन : 25-12-2016)
एक साहित्यकार से समाज की कुछ अपेक्षाएँ होती हैं। ये अपेक्षाएँ तभी पूरी हो पाती हैं, जब साहित्यकार अपने सृजनधर्म का निर्वाह साहित्येतर इकाइयों (व्यक्तियों व संस्थाओं) से प्रभावित हुए बिना करता है। सृजनधर्म सत्य, संवेदना और निस्पृहता के सम्मिलन से बनता है। समाज की दूसरी सार्वजनिक इकाइयों, विशेषतः आर्थिक, प्रशासनिक एवं राजनैतिक, के प्रभाव में इस तरह के धर्म का निर्वाह व्यवहारिक रूप में संभव नहीं होता। इस आधार पर बहुत कम साहित्यकार स्वतन्त्रतः सृजनधर्म का पालन करते हुए समाज की अपेक्षाओं को पूरा कर पाते हैं। जो साहित्यकार ऐसा करने में सफल हों, उनकेसाहित्य और जीवन में उन तत्वों को खोजना, जो समाज की अपेक्षाओं को पूरा करने के कारण बनते हैं, महत्वपूर्ण तो होता ही है, आवश्यक भी हो जाता है। मेरा मानना है कि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सतीश दुबे, जिन्हें लघुकथा के क्षेत्र में तो ‘व्यास’ सरीखा स्थान प्राप्त है, का जीवन और सृजन समग्रतः समाज की अपेक्षाओं को ही समर्पित रहा है। विगत वर्ष, 12 नवम्बर 2015 को जीवन के 75 वर्ष और सृजन-साधना के लगभग 50 वर्ष पूरे करने पर कई लघुपत्रिकाओं ने उनके व्यक्तित्व और रचनात्मकता पर केन्द्रित अंक निकाले, तो निश्चित रूप से उन तत्वों को स्पष्टतः जानने-समझने का अवसर हमें मिला है, जो समाज की अपेक्षाओं के सापेक्ष उनके सृजनधर्म को रेखांकित करते हैं। यद्यपि ‘अविराम साहित्यिकी’ (जुलाई-सितम्बर 2015), ‘श्रीगौड़ विचार मंच’ (जुलाई-सितम्बर 2015), ‘श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015), ‘साहित्य गुंजन’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) एवं ‘समावर्तन’ (सितम्बर 2016, एकाग्र के अर्न्तगत), सभी ने अपने-अपने स्तर पर इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया है, तथापि ‘श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ में यह कार्य कहीं अधिक परिश्रमपूर्वक और नियोजित तरीके से किया गया है। यह पत्रिका कई महत्वपूर्णसाहित्यकारों की कलम से डॉ. दुबे साहब के साहित्य और व्यक्तित्व से जुड़े अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्यों को प्रस्तुत करने में सफल हुई है। इन पाँचो पत्रिकाओं ने विभिन्न विद्वानों और दुबे साहब के इष्ट-मित्रों के माध्यम से उनके साहित्य, रचनात्मकता और जीवन के बारे में जिन तथ्यों को सामने रखा है, उन तथ्यों को रेखांकित करते हुए हम डॉ. दुबे साहब को समझने का प्रयास करेंगे।
      सबसे पहले तो हम कुछ विशेष बिन्दुओं के सन्दर्भ में दुबे साहब की व्यापक दृष्टि को उन्हीं के शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं। उनका सम्पूर्ण लेखन मनुष्य से आरम्भ होकर उसी से जुड़े तमाम पक्षों को नैसर्गिक रूप से समझने और रेखांकित करने पर केन्द्रित रहा है। स्वाभाविक है कि उनकी रचना प्रक्रिया भी ऐसे बिन्दुओं और रास्तों से होकर गुजरी है, जो उनके लेखन को प्रभावी रूप से मनुष्य और मनुष्यता से जुड़े जीवन-मूल्यों की वास्तविक पड़ताल और सकारात्मक स्थापनाओं के अनुकूल बनाती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा है— ‘‘मेरे लेखन के केन्द्र में मनुष्य होता है। मेरा यह मानना है कि मनुष्य केवल इसलिए मनुष्य नहीं है कि उसकी मज्जा मेंदेवगुण’ मौजूद हैं, जो उसे मनुष्य बनाते हैं। मनुष्य जीवन की विद्रूपता, असमानता, शोषण या सहजात-कोमल प्रवृत्तियाँ भी विषय-वस्तु के विकास का आधार बनती हैं। वैचारिक सिद्धान्त या सोच-विशेष की कूपमंडूकता से अलहदा स्वतंत्र चिंतन की वजह से विषय-वस्तु को बहुआयामी फलक मिले, यह मेरी कोशिश रहती है। तय है कि मैं किसी विधा विशेष की बागड़-बंदी में विश्वास नहीं करता। बावजूद इसके आत्मविश्वासी अभिव्यक्ति के लिए अंतर्वस्तु के अनुरूप लघुकथा, कहानी और उपन्यास के कैनवस पर अक्षरों के चित्र अंकित करने में मेरा मन रमता है। मेरा यह अनुभव है कि जब किसी कथ्य को आधार बनाकर मैं लिखना प्रारंभ करता हूँ, तब कथ्य मेरी नहीं पात्र की इच्छा से जुड़ जाता है।...और पात्र अपने तानाशाही प्रभाव के तहत मुझे अर्जीनवीस के अलावा कुछ नहीं समझते।’’ अविराम साहित्यिकी (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 6)
       किसी रचनाकार में रचनात्मकता का विकास रातों-रात या किसी विचार पर चिंतन मात्र से नहीं होता। यह सतत अनुभवों और दुनिया को देखने-समझने की लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होता है। यही कारण है कि अपने बचपन में देखे घटना-प्रसंगों को अपनी रचनात्मकता से जोड़ते हुए दुबे साहब ने लिखा है—‘‘...कई बार मेरे इसी उम्र के बचपन ने किसानों या सामान्य लोगों को वृक्षों की हरी किमड़ियों से बेरहमी से मार खाते और जोरों से रोते-गिड़गिड़ाते देखा है। संभवतः कर्ज नहीं चुका पाने या हुक्म उदूली की वजह से। ऐसे ही अनेक प्रसंग-बीज पल्लवित होकर उम्र के इस अंतिम पड़ाव तक भी उपेक्षित वर्ग की पक्षधरता, विसंगतियों, विकृतियों या शोषण के खिलाफ विचार व्यक्त करने के रूप में अन्तर्मन में बैठे हुए हैं।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 12)  इसी सन्दर्भ में, बचपन की अपनी पसंदीदा सियारामशरण गुप्त रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ को याद करते हुए दुबे साहब अपने उक्त आलेख में यह भी लिखते हैं— ‘‘इस रचना को दोहराते हुए मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठकर विचलित करता कि क्या कारण है कि मृत्यु-शैया पर पड़ी बेटी की अंतिम इच्छा के रूप में देवी के प्रसाद रूप में एक फूल लाकर देने में भी अछूत जाति का पिता कामयाब नहीं हो सकता।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 13) उन्होंने स्वीकार किया है कि बचपन के इन्हीं दिनों के अनुभवों ने कालांतर में उनके लेखन और जीवन-संघर्ष से मुकाबला करने की पृष्ठभूमि तैयार की। निश्चित रूप से समाज के अनेकानेक रूपों को बचपन से ही खुली आँखों से देखने-समझने से जनित प्रश्नवृत्ति उनकी रचनात्मकता का महत्वपूर्ण आधार बनी है। संभवतः सुप्रसिद्ध कवि बालकवि वैरागी जी इसी को लक्षित कर दुबे साहब के सन्दर्भ में अपने आलेख में यह टिप्पणी करते हैं— ‘‘आप पाएँगे कि ‘समय देवता’ के द्वार पर एक 21वीं सदी का अमृत आयुषी नचिकेता निरंतर प्रश्नरत है और अपनी कलम को माध्यम बनाकर सम्पूर्ण आयु की प्रत्येक साँस को दाँव पर लगाकर ‘समय देवता’ से उत्तरों के लिए संघर्ष कर रहा है। पृथ्वी को स्वर्ग बनाने वाली ‘शब्दाग्नि’ तो उसे सरस्वती माता ने ही दे दी है, किन्तु वह ‘स्वर्गाग्नि’ और ‘वाकाग्नि’ के लिए पिछली सदी से ही जूझ रहा है।’’ इसी आलेख में दुबे साहब के सृजन पर वैरागी जी की संक्षिप्त टिप्पणी सारगर्भित है- ‘‘...वे नित्य नया सर्जते हैं और ‘मनुष्य’ को समर्पित कर देते हैं। यह उनका अवदान से अधिक बड़ा दानसंचेतना दल’ है। वे समाज को सुप्त नहीं रहने देते।...’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 17) डॉ. दीपा मनीष व्यास की टिप्पणी दुबे साहब के लेखन में सकारात्मक दिशा की ओर संकेत करती है— ‘‘…रोमांच-रोमांस जैसे विषयों पर लेखनी ना चलाकर समाज के उस तबके पर प्रकाश डाला जिसे निम्न दृष्टि से देखा जाता है। भील-भीलालों की संस्कृति, जीवनचर्या व जिजीविषा पर लेखनी चलाई। मजदूर वर्ग व वेश्याओं के जीवन की सच्चाइयों या विकृतियों से पाठकों को परिचित किया-करवाया।... भाषा-शैली, संवाद योजना ऐसी जो सीधे दिल-ओ-दिमाग पर असर करती है। भारी-भरकम साहित्यिक शब्दों से दूर सरल-सपाट तरीके से अपनी बातों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना आपकी विशेषता रही है।’’ साहित्य गुंजन (अक्टूबर-दिसम्बर 2015,पृष्ठ 13)डेरा बस्ती का सफरनामा’ पर शोध प्रबन्ध लिख चुकी रूपा भावसार के शब्दों में—‘‘...उनके लेखन में विविधता, स्पन्दन में भावोंके हिलोरे हैं, परन्तु कहीं ठहराव नहीं है, सिर्फ प्रवाह ही प्रवाह है। शरीर में बीमारी की वजह से आई विकृति से उनका आवागमन रुका है, परन्तु उनके चिंतन-मनन पर कहीं भी जड़ता महसूस नहीं होती है...।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 44)
     दुबे साहब की रचनात्मकता के सन्दर्भ में श्री कैलाश जैन की यह सूचनाप्रद टिप्पणी महत्वपूर्ण है—‘‘मध्य प्रदेश का मंदसौर जिला पुलिस प्रशासन जिस बाँछड़ा समुदाय में व्याप्त देह व्यापार से कई वर्षों से परेशान है, उस मांद यानी डेरों में व्हील चेयर पर सवार होकर दुबेजी ने असलियत का मुआयना किया, बाँछड़ा युवतियों से गुफ्तगू की और शासन-प्रशासन से बेहतर सामाजिक जीवन जीने की चाह रखने वाले उन मजलूमों को कोई अच्छा जीवनयापन करने का रास्ता मिले, इसके लिए ‘एकला चलो’ की मानिंद प्रयत्न किया। यह सचमुच अनोखी पहल है। सबसे अच्छी बात यह है कि दुबेजी ने बाँछड़ा समुदाय पर रिपोर्ताज शैली में ‘डेरा बस्ती का सफरनामा’ उपन्यास लिखकर साहित्यिक बिरादरी को भी चौंका दिया।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ42) बाँछड़ा समाज पर केन्द्रित इस चर्चित उपन्यास के बारे में एक सामान्य धारणा है कि इसके लेखन से पूर्व उन्होंने काफी शोधकार्य किया था। लेकिन कैलाश जैन की इस टिप्पणी से प्रतीत होता है कि दुबे साहब ने उपन्यास के लिए शोधकार्य नहीं किया था, अपितु बाँछड़ा समुदाय के बेहतर जीवन-यापन के इच्छुक युवक-युवतियों के लिए रास्ते की खोज का एक सामाजिक प्रयास किया था। उपन्यास तो बाद में उस प्रयास को साहित्यीकृत करने का परिणाम बना। इसे दुबे साहब की संवेदनशीलता के सामाजिक पहल में कायान्तरण का परिणाम माना जाना चाहिए। एक साधनविहीन साहित्यकार के लिए यह एक जोखिमभरा कदम था, लेकिन दुबे साहब ने इस जोखिम का सहजता के साथ सामना किया। दरअसल सरकारी सेवा में रहते हुए दुबे साहब ने अपने कार्यक्षेत्र को समाजसेवा और अपनी संवेदना को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के माध्यम केरूप में अपना लिया था, जैसाकि श्रीधर बर्बेसाहब के आलेख साहित्य गुंजन (अक्टूबर-दिसम्बर 2015,पृष्ठ 17-18) से स्पष्ट है। मुझे लगता है कि इसी का विस्तार रहा होगा बाँछड़ा समुदाय के जीवन को बदलने का दुबे साहब का प्रयास। निस्सन्देह, उनका साहस, उनकी संवेदनशीलता का ऐसा वाहन है, जो उसे लेकर कहीं भी किन्हीं भी परिस्थितियों में जा-आ सकता है। उनके इस उपन्यास पर केन्द्रित फिल्म ‘भुनसारा’ ने तो व्यवस्था और समाज, दोनों को हिलाकर रख दिया था। उनके दूसरे उपन्यास ‘कुर्राटी’ की पृष्ठभूमि भील आदिवासियों पर केन्द्रित है, जिसे श्रीधर बर्बे साहब जनजाति क्षेत्र में दुबे साहब के कार्य-अनुभवों का परिणाम मानते हैं। दोनों उपन्यासों के साथ कई कहानियाँ और लघुकथाएँ भी ऐसी ही पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। कहा जा सकता है कि डॉ. सतीश दुबे साहब की संवेदना और समाजशास्त्रीय दृष्टि का सम्मिलन एक व्यावहारिक रचनात्मकता को प्रणीत करता है।
     दुबे साहब को अपने मालवा की जमीन से बेहद लगाव था। उन्होंने मालवी बोली से लेकर मालवी संस्कृति और उसकी सामाजिकता को विशेषरूप से हिन्दी कथा-साहित्य के माध्यम से विस्तृत आयाम प्रदान किए हैं। मालवा से उनके लगाव को हर किसी ने स्वीकार किया है। डॉ. शरद पगारे दुबे साहब को मालवा की जमीन से जुड़ा हुआ साहित्यकार और उनकी रचनाधर्मिता को मालवा की समृद्ध विरासत, जो सम्पूर्ण भारत और विश्वभर में विस्तारित है, को आगे बढ़ाने वाली मानते हुए लिखते हैं— ‘‘सतीश दुबे को विरासत में श्रेष्ठ साहित्यिकचेतना प्राप्त  हुई है। श्रेष्ठ रचनाधर्मी विरसे में मिली साहित्यिक-सांस्कृतिक पूंजी को न केवल सँभालकर रखता है वरन अपनी सृजनप्रतिभा के जरिए भावी पीढ़ी हेतु उसमें वृद्धि भी करता है। सतीश ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा और कथा-कहानियों के पात्रों की कथा में प्रवेश कर साहित्य की जो सम्पत्ति छोड़ी है, वह चौंकाने वाली ही नहीं वरन प्रेरक भी है। मालवी कथा-कहानी के क्षेत्र में सतीश ने अलग पहचान बनाई है। लघुकथा को साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय जगह दिलाने का श्रेय सतीश भाई को ही है...।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ18-19) इसी सन्दर्भ में श्रीनरहरि पटेल का यह कथन भी महत्वपूर्ण है- ‘‘...डॉ. सतीश दुबे आधुनिक हिन्दीगद्य में मालवी की जातीय पहचान बनाने में प्रदेश के साहित्यकारों में शीर्षगद्यकार हैं। उत्तर आधुनिकता के प्रभाव में नए विमर्शों, कथनों और आख्यानों में भी वे बड़ी निर्भीकता से अपनी बात करने वाले मेरे चहेते, शिष्ट और बेबाक मालवी प्रवक्ता हैं। उन्होंने अपनी परम्परा में रहते, आधुनिक भाव-बोध और सूक्ष्म संवेदनाओं का इजहार साहित्य की ‘लघुकथा’ विधा में किया और उसमें तो अखिल भारतीय यश अर्जित किया। यह हमारे लिए गौरव का विषय है। उनके लेखन का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसकी खास वजह है कि उन्होंने अपनी कृतियों में सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं के साथ ही सार्वभौम मानव संवेदनाओं संबंधी प्रभावी प्रश्न उठाए हैं। वे अपने लेखन में खूब सजग, जीवंत और तरोताजा हैं। उसमें सामाजिक बोध तो है ही। दुबेजी परिस्थितियों, संघर्षों और चुनौतियों से ताजिन्दगी मुकाबला करते रहे और इसीलिए उनके कथा-पात्रों में यातनाओं को सहने, हालात का मुकाबला करने का जज्बा है। उनकेपात्र परिस्थितियों को चुनौती देते हैं। उनमें हर हाल में जूझने की क्षमताहै। नकारात्मक माहौल में भी दुबेजी का कलमकार आशा, विश्वास और संकल्पों में अडिग दिखेगा।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ27) श्री मनोहर दुबे डॉ. साहब को मालवा का प्रेमचंद निरूपित करते हुए कहते हैं— ‘‘डॉ. सतीश दुबे का साहित्य आज तो प्रासंगिक है ही, उनका रचनाकर्म दूरदृष्टिता के कारण भविष्य में भी प्रासंगिक रहेगा व कालजयी सिद्ध होगा। मुंशी प्रेमचंद की भांति सरल, सादा व निरभिमानी व्यक्तित्व तथा कालजयी रचनाओं के लिये हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि डॉ. सतीश दुबे मालवा के प्रेमचंद हैं।’’ श्रीगौड़ विचार मंच’ (जुलाई-सितम्बर 2015, पृष्ठ23) गिरीश कुमार चौबे ‘गोवर्द्धन’ के शब्दों में ‘‘डॉ. सतीश दुबे का लेखन-कार्यलोक-अंचल से जुड़ा हुआ है। मालवी बोली उनके लेखन कार्य से शिक्षा के क्षेत्र में समृद्ध हुई है। उनके लेखन-कार्य को भीली परम्परा, बोली, मुहावरे और जीवन संघर्ष को उकेरने के लिए भी जाना जाता है।’’ श्रीगौड़ विचार मंच (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 7) वेद हिमांशु मालवी को दुबे साहब की रचनाओं में लेण्डस्केप की तरह देखते हैं— ‘‘वे वायवीय सृजनात्मकता से कोसों दूर तल्ख अहसासों के बीच से अपनी रचना उठाते हैं। मालवा दुबेजी की रचनाओं में लेण्डस्केप की तरह झाँकता है। भले ही उनकी विधा लघुकथा हो, कहानी हो या हाइकु कविताएँ। उन्होंने मालवा की सोंधी महक को कभी नेग्लैक्ट नहीं किया। उसकी जड़ों से उनकी यह रागात्मकता उनकी लेखकीय ईमानदारी और सही अर्थों में प्रतिबद्ध लेखक होने को सप्रमाण रेखांकित करती है।’’ साहित्य गुंजन(अक्टूबर-दिसम्बर 2915, पृष्ठ 28)  
डॉ॰ सतीश दुबे (चित्र : 01-11-2015)
      दुबे साहब ने दो उपन्यास लिखे। दोनों ही बेहद चर्चित हुए। दोनों ने ही आंचलिक जीवन के यथार्थ की गहरी पड़ताल के साथ बड़े परिवर्तनों को प्रणीत किया। किसी लेखक का लेखन सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन की बुनियाद रखने में कामयाब हो, इससे बड़ी उपलब्धि कुछ और हो ही नहीं सकती। दुबे साहब की इस उपलब्धि की सर्वत्र चर्चा हुई है। ऊपर गिनाई गयी पत्रिकाओं के इन विशिष्ट अंकों में भी इस सन्दर्भ में कई महत्वपूर्ण बातें कहीं गई हैं। डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय इन दोनों उपन्यासों पर केन्द्रित अपने विस्तृत आलेख में स्वीकार करते हैं कि—‘‘नया समाज, उसकी नई समस्याएँ एवं उससे उत्पन्न तनावग्रस्त स्थितियों-परिस्थितियों को चित्रांकित करने वाले समकालीन कथाकारों में आंचलिकता के फलक पर प्रस्तुत करने वाले कथाकार रेणु, विवेकीराय, डॉ. सत्यनारायण उपाध्याय, डॉ. नवलकिशोर, डॉ. रामदरश मिश्र आदि हैं, जिन्होंने लोकतत्व और लोकजीवन का सांस्कृतिक परिवेश में यथार्थवादी चित्रांकन प्रस्तुत किया है। समकालीन जीवन, उसके परिवर्तित स्वरूप एवं लोक परम्पराओं से प्रसूत नए मानवमूल्यों को कथा-साहित्य में उतारने और उभारने का जो कार्य हो रहा है, उनमें एक नाम डॉ. सतीश दुबे का भी जुड़ गया है जिनकी औपन्यासिक कृतियाँ ‘कुर्राटी’ और ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ हैं।’’ ‘कुर्राटी’ पर उपन्यास लेखन में दुबे साहब की क्षमता और समझ दोनों को रेखांकित करती डॉ. कान्ति कुमार की यह टिप्पणी भी बेहद महत्वपूर्ण है— ‘‘सतीश दुबे ने अपने उपन्यास ‘कुर्राटी’ की जो कथा चुनी है, वह उनकी परिचित है और उसकी सारी सेंधों एवं दरवाजों के वे साक्षी हैं; इसलिए ‘कुर्राटी’ में न तो अखबारों की कतरनों का सहारा लिया गया है, न ही शासकीय प्रतिवेदनों का। आदिवासियों की समस्याओं से स्पंदित और उनकी जीवंत संस्कृति से आंदोलित उपन्यासकार ने एक छोटे कैनवास पर उनको विराट इतिहास और उनके समृद्ध जीवन को उन्मुक्त प्रकृति और सम्पन्न संस्कृति के समानान्तर चित्रित कर बेहद पठनीय उपन्यास की रचना की है। कहते हैं कि कोई भी उपन्यासकार अपने जीवन में केवल एक ही उपन्यास लिख सकता है, एक ही अर्थात् वही जो उसके जीवनानुभवों पर आधारित हो। सतीश दुबे का ‘कुर्राटी’ उपन्यास ऐसा ही अनन्य उपन्यास है।’’  समावर्तन,(सितम्बर 2016, पृष्ठ 56)डेरा-बस्ती का सफरनामा’ का महत्व तो इसी से समझा जा सकता है कि उस पर मालवी बोली में ‘भुनसारा’ नामक फिल्म भी बनी और उपन्यास के प्रभावस्वरूप प्रशासन को ‘बाँछड़ा’ समाज में व्याप्त वेश्यावृत्ति के खिलाफ कार्यवाही करनी पड़ी, जो तमाम बड़े समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं की कवरेज में शामिल होकर एक सामाजिक परिवर्तन की नींव का कारण बनी। 
      दुबे साहब की रचनात्मकता का सामाजिक महत्व उपन्यासों तक सीमित नहीं है। उनकी कहानियाँ और लघुकथाएँ भी समान रूप से प्रभावी एवं सामाजिक सरोकारों की वाहक हैं। इन्दौर से प्रकाशित समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली दुबे साहब की कहानियों को याद करते हुए डॉ. जवाहर चौधरी उनकी प्रभावोत्पादकता पर टिप्पणी करते हैं— ‘‘सतीश दुबे की कहानियाँ अपेक्षाकृत सरल और सम्प्रेषण में सफल होती थीं। सरल लिखना बहुत कठिन होता है लेकिन दुबेजी को यह कठिनाई शायद ही कभी महसूस हुई होगी। यही कारण है कि उनके छह-सात कहानी संग्रह प्रकाशित हुए और पसंद किए गए। इसका कारण यह है कि दुबेजी समाजशास्त्र के विद्वान रहे हैं और समाज की, व्यवस्था की बारीकियों से वाकिफ भी रहे हैं। फिर उनका पीएच.डी. का विषय प्रेमचंद का साहित्य रहा है। प्रेमचंद-साहित्य का सूक्ष्म अध्ययन करते उनमें वो दृष्टि पैदा हुई जो किसी भी साहित्यकार के लिए बहुत जरूरी है। इसका एक लाभ यह हुआ कि दुबेजी के लेखन में एक परम्पराके दर्शन भी हमें होते हैं।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 29)कोलाज’ की कहानियों पर टिप्पणी करते हुए माधव नागदा का यह कथन बेहद सटीक है— ‘‘...एकतरफ इतनी चमक-धमक है कि इसके पीछे छिपी वास्तविकता को ढूँढ़ पाना खासामुश्किल हो गया है तो दूसरी ओर इतना शोर-शराबा कि मनुष्य अपने भीतर की आवाज भी ठीक से नहीं सुन पाता। ऐसी विषम स्थितियों में एक जागरूक और जिम्मेदार रचनाकार ही सारी चमक-दमक को छिन्न-भिन्न करते हुए सत्य से साक्षात्कार करवा सकता है, उत्तरोत्तर दुर्लभ होते जा रहे संवाद, सहयोग, प्रेम, सहानुभूति, करुणा जैसे मानवीय तत्वों से हमें रूबरू करवा सकता है। सतीश दुबे ऐसे ही जागरूक रचनाकार हैं। जीवन की विपरीतताओं ने उन्हें ऐसी अन्तर्दृष्टि दी है जो उनके समकालीन साहित्यकारों में लगभग विरल है। इस बात का साक्ष्य उनके ताजा कहानी संग्रह ‘कोलाज’ की सभी सोलह कहानियाँ हैं।’’ श्रीगौड़ विचार मंच (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 15) दुबे साहब के संग्रह ‘धुंध के विरुद्ध’ की कहानियों पर टिप्पणी करते हुए सनत कुमार जी का मानना है—‘‘सतीश दुबे की कहानियाँ अपने समय के बहुआयामी यथार्थ को पूरी संवेदना और सहजता से अभिव्यक्त करती हैं। उनकी कहानियाँ लिंग, जाति, नस्ल, गाँवों की सामंतवादी व्यवस्था, शहरों की उपभोक्तावादी धुंध के खिलाफ मनुष्य की गरिमा के समर्थन में एक सार्थक हस्तक्षेप हैं। साहित्य गुंजन (अक्टूबर-दिसम्बर 2915, पृष्ठ 11)
       सामाजिक जीवन से जुड़ा शायद ही कोई विमर्श हो, जो दुबे साहब के लेखन में कुछ विशिष्ट स्थापनाओं और मनोविश्लेषण से अछूता रह पाया हो। उनके लेखन में कई चीजें पाठकों को जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर नई धारणाएँ बनाने या पूर्व धारणाओं का परिवर्द्धन करने को विवश करती हैं। इस सन्दर्भ में उनकी ‘अकेली औरत’ और ‘एक अन्तहीन परिचय’ जैसी यादगार कहानियाँ सटीक उदाहरण हैं। ‘एक अन्तहीन परिचय’ आज की युवा पीढ़ी के बारे में पूर्वाग्रहों से युक्त धारणाओं और ‘अकेली औरत’ समूचे महिला विमर्श को झकझोर कर रख देती है। महिला विमर्श के सन्दर्भ में दुबे साहब के साहित्य का पर्याप्त अध्ययन कर चुकी चर्चित कवयित्री व कथाकार खुदेजा खान मानती हैं‘‘सतीशजी की रचनाओं में जिस प्रकार नारी को सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया गया, उकेरा गया और स्थापित किया गया, वो अपनी समग्र चेतना के साथ ‘नारी विमर्श’ के केन्द्र में आता है।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 45) 
       दुबे साहब के लेखन का आरम्भ सामान्यतः व्यंग्य से हुआ था। बाद में उन्होंने कहानी, लघुकथा और उपन्यास के साथ कविता, हाइकु और अन्य विधाओं में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। लेकिन वह लघुकथा से ऐसे जुड़े कि उनकी मूल पहचान उसी के साथ जुड़ गयी। बात यहीं तक सीमित नहीं रही, यथार्थ में जितना उनका नाम लघुकथा के साथ जुड़ा, उससे कहीं अधिक लघुकथा का नाम उनके साथ जुड़ा। मेरा तो मानना है कि लघुकथा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण और समर्पित लेखकों की उपस्थिति और उनके महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद लघुकथा अपनी पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाती, यदि डॉ. सतीश दुबे लघुकथा से न जुड़े होते और न जुड़े रहते। शायद लघुकथा का हश्र भी क्षणिका जैसा होता। क्षणिका लघुकथा नहीं बन पाई तो इसीलिए कि उसे कोई सतीश दुबे नहीं मिल पाया। कई चीजे हैं, जो दुबे साहब के साहस, समझ, व्यक्तित्व, व्यापक दृष्टि, निरंतरता और सम्पर्क-कला के बिना लघुकथा में संभव नहीं थीं। इसीलिए लघुकथा में उनके योगदान को पूरा साहित्य जगत स्वीकार करता है। 
      सक्षम कहानीकार और उपन्यासकार होने के बावजूद उन्होंने लघुकथा के लिए जीवन समर्पित किया, दूसरी ओर सक्षम व्यंग्यकार होने के बावजूद उन्होंने लघुकथा को न केवल व्यंग्य की परिधि से बाहर निकाला, उसे अनेक व्यंग्येतर आयाम प्रदान किए। एक ओर लघुकथा के प्रति स्वीकारोक्ति का वातावरण बनाने में ये दोनों बातें महत्वपूर्ण सिद्ध हुई हैं तो दूसरी ओर लघुकथा का विधागत विकास बहुआयामी पथ पर आगे बढ़ा। व्यंग्य ही नहीं, उन्होंने कई अन्य परिधियों और कवचों की कैद से भी लघुकथा को बाहर निकाला है; जिनमें लघुकथा बनाम लघुकहानीका विवाद भी शामिल है। इस सन्दर्भ में सरोजकुमार कुमार की यह टिप्पणी प्रासंगिक है— ‘‘सतीश लघुकथा विधा के प्रवक्ता, पुरोधा और प्रवर्तक भी हैं।सारिका’ में कमलेश्वर ने 1980 के आसपास जब लघुकथाएँ छापना शुरु किया था, तब तक ‘लघुकथा’ का स्वरूप एवं अवधारणा अस्पष्ट थी। यथार्थ और व्यंग्य से आगे वे नहीं बढ़ रही थीं। छिन्दवाड़ा में कमलेश्वर की उपस्थिति में सम्पन्न एक गोष्ठी में सतीश ने लघुकथाओं के कलेवर को लेकर जो स्थापनाएँ व्यक्त की थीं, उन्हें सबने सराहा और स्वीकार किया था। लघुकथाओं की चर्चाओं में सतीश की स्थापनाओं का उल्लेख आज हम सर्वत्र पाते हैं।’’ समावर्तन, (सितम्बर 2016, पृष्ठ 57) उनकी लघुकथा सृजन-क्षमता और सामयिक प्रासंगिकता पर डॉ. कमलकिशोर गोयनका इन शब्दों में अर्थवान टिप्पणी करते हैं— ‘‘जीवन के बहुरूप को देखने की सूक्ष्म दृष्टि और उसे शब्दों में उतार देने की क्षमता का नाम ही सतीश दुबे है। आपकी लघुकथाएँ जीवन के सत्य का उद्घाटन करती हैं। जीवन की विसंगति और करुणा का चेहरा खोलती हैं तथा मनुष्य की गाथा और विवशता को निरावृत करती हैं। लघुकथाकार का यही धर्म है कि वह अपने समय और समाज को और व्यक्ति को देखे और उसके द्वंद्व, अंतर्द्वंद्व, संघर्ष, शोषण और विसंगति को समाज के सामने रख दे। आपने ऐसे ही लघुकथाकार होने के धर्म का निर्वाह किया है...।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 56)  लघुकथा में उनके योगदान एवं भाषा-सौन्दर्य के सन्दर्भ में वसंत निरगुणे का कथन भी महत्वपूर्ण है—‘‘... चाहे भाषा हो अथवा शैली, दोनों सतीश दुबे के लेखन में स्वाभाविक रूप में रूपायित होती हैं।... लघुकथा की ऐसी कसी, सार्थक और लाक्षणिक भाषा अन्यत्र दिखाई नहीं देती। कथ्य की अदायगी उसके पात्रों के संवादों अथवा कथानक में नहीं होती है, बल्कि डॉ. दुबे लघुकथा के परिवेश में बुन देते हैं। संभवतः यही उनकी लघुकथा की विशेषता भी है। यह सब लघुकथाकारों से आगे निकलने की बात है। लघुकथा को डॉ. सतीश दुबे चित्र की भाँति अंतर्मन तक ले जाते हैं, जहाँ लघुकथा एक विशेष रूप धारण कर लेती है, वह है साहित्य में सौन्दर्यबोध की प्रतीति।... डॉ. दुबे को इस अनिर्वचनीय अभिव्यक्ति में महारत हासिल है।’’ समावर्तन, (सितम्बर 2016, पृष्ठ 55)
       दुबे साहब के लघुकथा साहित्य पर एक और यथार्थ टिप्पणी गौरतलब है श्रीधर जोशी जी के शब्दों में— ‘‘डॉ. दुबे साहब की लघुकथाएँ आधुनिक समाज के सत्य का आइना हैं। डॉ. साहब का लेखक जीवन को अंतर्मन की गहराई से निहारता है। सूक्ष्म गहन चिंतन-मनन करता है। वे समस्याओं के मर्म पर सत्य के आधार पर चोट करते हैं।...वे केवल कटु सत्य को उजागर ही नहीं करते, वरन उसका कारगर हल, समाधान व उपचार भी प्रस्तुत करते हैं। आज के मानव के खोखले रिश्तों, शनैः-शनैः तिरोहित होती इंसानियत, तथाकथित सभ्यता की छद्मरूपता के विषय में आपकी लघुकथाएँ मर्मस्पर्श करती हुई पाठकों के मुँह से प्रसंगानुकूल आह और वाह करवा देती हैं। वे चिंतित हैं मनुष्य में पनपते और पलते जंगलीपन और विषैलेपन से। आवरण में आवेष्टित नंगेपन से, निर्लज्जता से। यहाँ पर उनकी लघुकथाएँ कठोरता से उन पर प्रहारकरती हैं।...’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 53)
       डा. सतीशदुबे का व्यक्तित्व बेहद सरल और विनम्रता से भरा हुआ था, जिसकी सराहना सदा-सर्वदा होती रही है। उनसे मिलकर कोई भी व्यक्ति जिस तरह प्रभावित होता है, उसी को शब्दों की काया प्रदान की है कैलाश नारायण व्यास जी ने— ‘‘डॉ. दुबेजी के स्वभाव की सादगी, विनम्रता, सरलता (आज सरल होना ही सबसे कठिनहै), सभी के प्रति स्नेह व सद्भावना, अतिथि सत्कार, समाज के प्रति लगाव, समाजसेवियों के प्रति सम्मान की भावना, अपने साहित्य के माध्यम से समाज में सुधार व बदलाव लाने की चाहत व ताकत (क्षमता), अपने शिष्यों व जरूरतमंदों को उपयोगी निःस्वार्थ मार्गदर्शन, सहयोग की भावना, अहंकारहीनता आदि अनेक उच्चतर मानवीय गुण बरबस प्रभावित करते हैं।’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 47-48) इसी कड़ी में ‘हिन्दी लघुकथा के विकास में डॉ. सतीश दुबे का योगदान’ विषय पर पीएच.डी. की शोधोपाधि ग्रहण कर चुके डॉ. पी. एन. फागना मानते हैं—‘‘...मैंने महसूस किया है कि इस व्यक्ति में वे सारे गुण मौजूद हैं, जो एक महापुरुष में होने चाहिएँ। डॉ. सतीश दुबे दया, करुणा, उदारता, प्रेम एवं साहस की प्रतिमूर्ति हैं। मैंने अपने निजी जीवन में महसूस किया है कि दुबेजी ने जिस प्रकार मेरा सहयोग, मार्गदर्शन, अनुशासन एवं कार्य के प्रति निष्ठा आदि नैतिक मूल्यों से परिचय कराया है, यह समभाव सबके साथ दिखाई देता है। दुबेजी की वाणी में मधुरता है, जो किसी संगीतज्ञ की आवाज में होती है।...’’ श्री श्रीगौड़ नवचेतना संवाद’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015, पृष्ठ 57) लघुकथाकार सतीश राठी के शब्दों में— ‘‘वे सदैव बड़ी लकीर खींचने में विश्वास करते रहे। किसी की लकीर बिगाड़कर छोटी करने का ख्याल उनके मन में कभी नहीं आया। उन्होंने जीवन के दुःख को और सुख को संत भाव से स्वीकार किया।’’ साहित्य गुंजन(अक्टूबर-दिसम्बर 2915, पृष्ठ 30)
      डॉ. दुबे साहब के लेखन और व्यक्तित्व में वास्तविक सकारात्मक और सहधर्मी रिश्ता रहा है। इस रिश्ते ने उनके तमाम सहयोगी और समधर्मा लेखक मित्रों को एक ओर अपनत्व के धागों से तो दूसरी ओर रचनात्मक प्रेरणाओं की भाव-भूमि से जोड़े रखा है। यही कारण है कि उनके समकालीन तमाम लघुकथाकार न सिर्फ उनके प्रति आत्मीयता से ओत-प्रोत रहे हैं, अपितु उनके सृजन, विचारों और स्थापनाओं का सम्मान भी करते रहे हैं। यह भावना कुछ प्रमुख लघुकथाकारों की इन टिप्पणियों में देखी जा सकती है। कथाकार सूर्यकान्त नागर ने अपने आलेख में लिखा है— ‘‘कथा साहित्य में भी सतीश दुबे एक बड़ा नाम है। उनके अब तक पाँच कथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। साबजी, दगड़ू, वैशाखियों पर टिके चेहरे, सम्बंधों के विरुद्ध, कटघरे, अंतर्मन से हँसने वाला आदमी, अंधेरे में सिमटी धूप, आग्नेय आदि उनकी महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं। इनसे उनके सामाजिक सरोकार स्पष्ट हुए हैं। उनकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध है। कहानियों में मालवा की माटी की गंध है। दुबेजी के पास एक प्रवाहमयी भाषा है। व्यर्थ के शिल्प वैभव के बजाय उनका भरोसा ईमानदार अभिव्यक्ति में है। उनके लेखकीय सामर्थ्य से परिचित होना हो तोप्रेक्षागृह’ की उनकी भूमिका ‘कथा जो लिखी न जा सकी’ और पत्र-संग्रह कीउनकी किताब ‘थोड़ा लिखा, बहुत समझना’ को पढ़ना चाहिए।’’ अविराम साहित्यिकी (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 13-14) वरिष्ठ लघुकथाकार भगीरथ के शब्दों में— ‘‘उन्होंने बीमारी और उम्र को धता बताकर साहित्य को ही अपना जीवन बना लिया है। वस्तुतः साहित्य के पठन और लेखन से उन्हें इतनी ऊर्जा प्राप्त होती है कि वे साहित्य में रमे रहते हैं। पूरा ध्यान शरीर पर न रहकर लेखन पर टिक जाता है। यह असंभव लगता है लेकिन मैंने हकीकत में देखा है, महसूस किया है।... बतौर संपादक, पहले ‘वीणा’ और बाद में ‘लघु आघात’ पत्रिकाओ के जरिए, उन्होंने लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लघुकथा संकलनों के संपादक के रूप में भी उन्हें याद किया जायेगा। ‘आठवें दशक की लघुकथाएँ’ संकलन इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है। वे लेखकों को लगातार अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करते हैं, वे स्वयं लेखकों के लिए प्रेरक व्यक्तित्व हैं।” अविराम साहित्यिकी (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 12) डॉ. बलराम अग्रवाल का मानना है—‘‘लघुकथालेखन-सम्पादन को अपना  ‘बैस्ट’ दे चुकने और ‘इतिहास’ रच देने की घोषणा के बाद कहानी-उपन्यास-संस्मरण-यात्रा-पत्रकारिता-आलोचना आदि विविध विधाओं को अपना ‘बैस्ट’ देने में जुटे अनेक ‘साहित्यकारों’ से वे अलग हैं। इस विधा के वे ऐसे स्तम्भ हैं जो कहानी, उपन्यास, हाइकु आदि में सक्रिय रहनेके साथ-साथ अभी तक भी इस विधा को कुछ न कुछ दे अवश्य रहे हैं।’’ अविराम साहित्यिकी (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 16) दुबे साहब की कई पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके दिशा प्रकाशन, दिल्ली के प्रबन्धक एवं वरिष्ठ लघुकथाकार मधुदीप का मानना है—‘‘सतीश दुबे बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे लघुकथा के सर्वमान्य एवं सर्वचर्चित हस्ताक्षर तो हैं ही, उनके उपन्यास ‘कुर्राटी’ तथा ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ ने उन्हें पूरे देश में ख्याति दिलाई है।... अपनी कहानियों में जीवन्त पात्र प्रस्तुत करने वाले दुबेजी प्रेमचन्दसाहित्य के गहन अध्येता हैं तथा अपने साहित्य में भी वे उसी परिपाटी का निर्वहन करते हैं। उनके पात्र कभी पराजय स्वीकार नहीं करते और समाज की कुरीतियों के विरुद्ध तनकर खड़े होने का साहस रखते हैं।... सतीश दुबे ने अपनी शारीरिक असमर्थता को कभी अपने कर्मक्षेत्र के आड़े नहीं आने दिया। वे निरन्तर सृजनशील तो हैं ही, साथ ही नए लेखकों को भी लिखने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे लघुकथा के विद्यालय हैं और मेरी ही तरह बहुत से सफल लघुकथाकार उनके छात्र रहे हैं।’’ अविराम साहित्यिकी (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 17)     
       सामान्यतः असाध्य-असमाप्त बीमारी व्यक्ति को तोड़कर रख देती है, निराशा की गहरी खाई में पटक देती है; लेकिन दुबे साहब ने न सिर्फ उस पर विजय पाई, अपितु उसके ऊपर अपनी गुणात्मक रचनात्मकता का विशाल वृक्ष खड़ा करके दुनिया के समक्ष एक मिशाल कायम कर दी। इस सन्दर्भ में प्रभु जोशीजी ने बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी की है— ‘‘...एक असमाप्त और असाध्य रुग्णता के बीच अपनी ‘जिजीविषा’ को जिस तरह और जिस स्तर पर उन्होंने रचनात्मकता से नाथे रखा; कदाचित इस अर्थ में वे हिन्दी कहानी में अकेले और लगभग एकमात्र लेखक हैं। हालाँकि ये बहुत मुमकिन था कि ‘यथार्थ के समकाल’ में सीधे-सीधे धँसने और धँसे रहने में व्याधिजन्य शारीरिक असमर्थता, उन्हें अतीतजीवी और एकान्तिक बना देती, जिसमें उलझकर लेखन एक किस्म की ‘सेल्फपिटी’ का रूप ले लेता। लेकिन कहने की जरूरत नहीं कि ठीक इसके विपरीत उनकी कई कहानियाँ इस बात या सच्चाई की तसदीक करती हैं कि वे वैयक्तिकता के ‘भीतर’ के संसार में चहलकदमी करते हुए मध्यवर्गीय सीमान्तों पर रुके रह जाने की बजाय उस ‘बाहर’ के ‘व्याप्त’ को साहित्यिकृत करती हैं, जो किसी भी वृहत् सामाजिक चेतना से सम्पन्न लेखक के ‘रचे हुए’ में बरामद किया जा सकता है।...’’ समावर्तन, (सितम्बर 2016, पृष्ठ 56-57)  इसी प्रसंग में प्रतापसिंह सोढ़ी जी की टिप्पणी को भी देखा जा सकता है- ‘‘जीवन को मैदान-ए-जंग एवं हौसलों को जीत का आधार मानने वाले डॉ. सतीश दुबे ने एक साधक की साधना-उपासना की तरह जीवन को भोगा है। जीवन की दुश्वारघाटियों से गुजरते हुए जिन अनुभवों को उन्होंने अर्जित किया, उस यथार्थ को कलात्मक रूपांतरण द्वारा साहित्य में उतारा। लघुकथा के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम है।... आँचलिक उपन्यास की परम्परा को आगे बढ़ाया है और अपनी कहानियों के माध्यम से जीवन के बदलते मूल्यों, सामाजिक विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को जीवंत किया है। उनका बाल साहित्य बाल मनोवृत्तियों का एक उज्ज्वल दर्पण है। मालवी एवं हिन्दी के उनके हाइकु प्रकृति के विराट स्वरूप एवं मानवीकरण को मूर्त रूप देते हैं।...’’ समावर्तन, (सितम्बर 2016, पृष्ठ 57)
      इस प्रकार, ऊपर उद्धृत पाँचों पत्रिकाओं ने दुबे साहब की उच्च मानवीय मूल्यों एवं रचनात्मकता से परिपूर्ण जीवन-यात्रा के तमाम पहलुओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है। उनके जैसे प्रेरणाप्रद एवं समर्पित व्यक्तित्व के सन्दर्भ में इतना आयोजन बहुत बड़ा तो नहीं कहा जा सकता किन्तु आज के समय और परिस्थितियों के दृष्टिगत सन्तोषजनक अवश्य माना जा सकता है। एक बात पर खेद मैं अवश्य व्यक्त करना चाहूँगा कि जिस लघुकथा-जगत की नींव उनके समर्पण में निहित रही, उसकी ओर से उनके पिचहत्तरवें वर्ष को लघुकथा पर जिस तरह चर्चा, विमर्श और आत्मावलोकन के अवसर के रूप में उपयोग किया जा सकता था, वैसा कुछ देखने को नहीं मिला। लघुकथा-जगत उनके समर्पण के प्रति ‘धन्यवाद’ कहने से चूक गया। मैं अपनी बात समाप्त करने से पूर्व उनके सफल कहानी व उपन्यास लेखक के लघुकथा के प्रति समर्पण का एक बड़ा उदाहरण सम्पूर्ण लघुकथा-जगत को स्मरण कराना चाहूँगा। लघुकथा की सीमित पहुँच और पुराने कथा साहित्य से तुलना विषयक पूर्वाग्रही धारणा पर सतीश राठी के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था—‘‘प्रेमचन्द के होरी या तुलसी के राम की चर्चा करना उस साहित्य की चर्चा करना होता है जो जनमानस तक पहुँचा होता है। जनमानस तक पहुँचे हुए साहित्य का अर्थ होता है ‘टोटल इन्टीग्रेटी ऑफ लिट्रेचर’। ऐसा साहित्य जो लोगों के दिलो-दिमाग में कथानक और पात्र सहित ठेठ तक असर करता है। वैसे प्रेमचन्द की परम्परा के बाद ऐसे कितने लेखक हैं जिन्होंने उपन्यास या कहानी में ऐसी परम्परा को निभाया है? या जिनके पात्रों को साहित्य में रुचि रखने वाले सामान्य पाठक जानते हैं? जबकि लघुकथा के बारे में तो यह कहा जाता है कि जो लोग लघुकथाएँ पढ़ते हैं, वे उन्हें याद रखते हैं।’’ अविराम साहित्यिकी’ (जुलाई-सितम्बर 2015 पृष्ठ 9)  भले ही दुबे साहब को याद रखें न रखें, लेकिन उनकी इस पक्षधरता, जिसका एक व्यापक और विशिष्ट अर्थ है, को हम याद रख सकें तो लघुकथा के भविष्य के लिए एक बड़ी बात होगी। लघुकथा, जो डॉ. सतीश दुबे साहब के लिए हमेशा सबसे ऊपर रही है, उनके अपने जीवन से भी ऊपर।
संपर्क121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र.

मो. 09458929004 

3 comments:

LAGHUKATHA VRITT - RNI- MPHIN/2018/77276 said...

डॉ सतीश दुबे जी के समग्र व्यक्तित्व परिचय पढ़कर अच्छा लगा. आदरणीय उमेश जी द्वारा प्रस्तुत यह आलेख हमें हमारे अग्रज की कर्मनिष्ठा से परिचय करवा गयी है. साहित्य के संत समाज के लिए, मनुष्यता के लिए किस तरह प्रतिबद्ध होते हैं ये हमारे सामने विस्तार से आया है. हम सब आदरणीय उमेश जी के आभारी है.

सतीश राठी said...

बहुत सुंदर आलेख डॉ सतीश दुबे के समग्र व्यक्तित्व को आपने इसमें समाविष्ट किया है बधाई

नागेन्द्र नाथ said...

बहुत सुन्दर आलेख
संवेदनशील लेखक के कृतित्व का सटीक सुन्दर विश्लेषण
बधाई ।धन्यवाद